तुम चाहो चाहे न चाहो, क्यों न चाहे तुम लाख छिपाओ,
कुछ अनकहे से राज़ तुम्हारे, बरबस ही वो खोल देती थी,
तुम्हारी आँखें बोल देती थी…
जब-जब प्यार के रिश्ते को, किया तुमने शर्मिंदा,
जब-जब भी झूठे बोल, तुम्हारे अधरों ने बोले,
तुम्हारी आँखों ने रख ली लाज, तुम्हारी भी और मेरी भी,
दे दिए अश्रु-से मोती, पलों में सारे सच खोले,
तुम्हारी हर गलत सी बात, तुम्हारे झूठ की औकात,
खुद झुक जाती थी और झट से तोल देती थी,
तुम्हारी आँखें बोल देती थी….
तुम्हारे बंद से होंठो ने जब, मेरे विश्वास को तोड़ा,
चीख-चीख कर रोया, मेरे दिल का हर कतरा,
तब मेरे मन के भवरों को, तुम्हारी आँखों ने समझा,
हर बार खुद से ही, पलों में भांप कर खतरा,
कभी ना साथ छोड़ने की कभी, रिश्ता ना तोड़ने की,
एक अटूट-सी कसम, मुझे अनमोल देती थी,
तुम्हारी आँखें बोल देती थी….
तुम्हारे विश्वासघातों पर, कर दूँ प्यार अपना ये न्योछावर,
इसी ख्याल में पलकें, कभी भीगीं कभी सूखीं,
मगर डरता था मेरा दिल, तुम्हारे एक आंसू से,
बहुत एहसान थे मुझपर, तुम्हारी आँखों के क्यूंकि,
कभी पलकों को झुकाकर, कभी इशारों से समझाकर,
विश्वासघात सहने का मुझे वो मोल देती थी,
तुम्हारी आँखें बोल देती थी….
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