Thursday, 13 October 2016

वो कहती थी लिखते रहना…..



इस दुनिया की दीवारों में, सच के इन अमर बाज़ारों में,
बेमोल यूँही बिकते रहना, वो कहती थी लिखते रहना….
है अब भी याद मुझे वो पल, वो बोली थी एक बात कहूँ,
है कसम तुम्हे ये मेरी कि, मैं रहूँ साथ या नहीं रहूँ,
सच का दामन थामे रहना, आशाओं में दिखते रहना,
वो कहती थी लिखते रहना, वो बोली थी लिखते रहना…

तुम सागर की उंचाई लिखना, तुम पर्वत की गहराई लिखना,
दिन की धूप सभी लिखते हैं, तुम रातों की परछाईं लिखना,
झूठ प्रबल हो सच्चाई पर जब-जब भी,
सच की खातिर मिट जाना या मिटते रहना,
वो कहती थी लिखते रहना, वो बोली थी लिखते रहना…

जब अबला खोये सड़को पर, तुम तब लिखना,
जब कोई सोये सडको पर, तुम तब लिखना,
उम्मीद लिए एक रोटी की भूखा बच्चा,
जब भी रोये सड़कों पर, तुम तब लिखना,
बेचैनी हावी हो जब तब खुशियों खातिर,
बिक जाना या हर बार यूँही बिकते रहना,
वो कहती थी लिखते रहना, वो बोली थी लिखते रहना…

तो हाथ जोड़कर मांग रहा हूँ माफ़ी मैं,
मिट्टी की खातिर, लिखना बहुत जरुरी है,
ना ठीक लगे हो शब्द मेरे तो ये पढना,
वो थी मेरी उम्मीद, मेरी मजबूरी है,
हाँ! कुछ लोगों को अफ़सोस भी होगा,और कुछ को मेरी बात खलेगी,
पर जब तक मेरी सांस चलेगी,तब तक उसकी कसम चलेगी,
और जब तक उसकी कसम चलेगी,तब तक मेरी कलम चलेगी..….

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