शायद आकाश छुआ मैंने....
शायद आकाश छुआ मैंने, सबके अंतर्मन भांप गए,
जो कहते थे खुद को ज्ञानी, सब सिहर उठे सब काँप गए |
जिनमें मेरा यश गान हुआ वो रातें उनको चुभती थीं ,
जिन छोटी-छोटी बातों पर जग जी भर ताली देता है,
हाँ, मेरे द्वारा कही गईं वो बातें उनको चुभती थीं ,
वो महामूर्ख, वो अभिमानी, जो अर्श पे खुद को कहते थे,
अपने कर्मो के कारण ही, वो फर्श पे अपने आप गए |
शायद आकाश छुआ मैंने, सबके अंतर्मन भांप गए,
जो कहते थे खुद को ज्ञानी, सब सिहर उठे सब काँप गए |
जो मेरे शब्दों को ही, बस सुनते और सुनाते थे,
उनका अपना ही शब्द-बाण, उनके अधरों पर अटक गया ,
थे साथ मेरे, जो मेरे हित में, रास्ता मुझे दिखाते थे,
कुछ आज हुआ ऐसा की उनका, जीवन-रथ पथ भटक गया ,
हर गैर-गैरती हरक़त पर, उनकी अब दुनिया हंसती है,
ये न्याय कहें उस मालिक का, या उनपर एक अभिशाप कहें |
शायद आकाश छुआ मैंने, सबके अंतर्मन भांप गए,
जो कहते थे खुद को ज्ञानी, सब सिहर उठे सब काँप गए |
अब ज़िक्र पे मेरे आलम ये है, चुप-चाप निकल वो जाते हैं,
मैं केवल आँख मिलाता हूँ, वो उसमे भी कतरातें हैं ,
वाकिफ हैं वो इससे की वो, अब एक टूटा हुआ परिंदा हैं,
कुल कायनात को मालूम है, वो मन ही मन शर्मिंदा हैं ,
चाहते हैं, पर अपने मुह से मेरा नाम नहीं लेते,
ये फल है उनकी गलती का उनका पश्च्याताप कहें |
शायद आकाश छुआ मैंने, सबके अंतर्मन भांप गए,
जो कहते थे खुद को ज्ञानी, सब सिहर उठे सब काँप गए |
जितना वो कर पाए जैसे, बस मेरा अपमान किया,
व्यर्थ ही था उद्देश्य ये उनका, अंत में सबने मान लिया ,
लेकिन मजबूर हैं आदत से वो, शायद किस्मत के मारे हैं,
और ज़ारी है गर कोशिश अब भी, तो भोले नहीं बेचारे हैं ,
मैं यही कहूँगा उनसे की, हैं बहुत सी चीज़े करने को,
मुझसे टकराकर पहले ही, ढह कितने सैलाब गए |
शायद आकाश छुआ मैंने, सबके अंतर्मन भांप गए,
जो कहते थे खुद को ज्ञानी, सब सिहर उठे सब काँप गए |
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