Friday, 2 December 2016

शायद आकाश छुआ मैंने....



शायद आकाश छुआ मैंने, सबके अंतर्मन भांप गए,

जो कहते थे खुद को ज्ञानी, सब सिहर उठे सब काँप गए |



जिनमें मेरा यश गान हुआ वो रातें उनको चुभती थीं ,

जिन छोटी-छोटी बातों पर जग जी भर ताली देता है,

हाँ, मेरे द्वारा कही गईं वो बातें उनको चुभती थीं ,

वो महामूर्ख, वो अभिमानी, जो अर्श पे खुद को कहते थे,

अपने कर्मो के कारण ही, वो फर्श पे अपने आप गए |

 शायद आकाश छुआ मैंने, सबके अंतर्मन भांप गए,

जो कहते थे खुद को ज्ञानी, सब सिहर उठे सब काँप गए |



जो मेरे शब्दों को ही, बस सुनते और सुनाते थे,

उनका अपना ही शब्द-बाण, उनके अधरों पर अटक गया ,

थे साथ मेरे, जो मेरे हित में, रास्ता मुझे दिखाते थे,

कुछ आज हुआ ऐसा की उनका, जीवन-रथ पथ भटक गया ,

हर गैर-गैरती हरक़त पर, उनकी अब दुनिया हंसती है,

ये न्याय कहें उस मालिक का, या उनपर एक अभिशाप कहें |

 शायद आकाश छुआ मैंने, सबके अंतर्मन भांप गए,

जो कहते थे खुद को ज्ञानी, सब सिहर उठे सब काँप गए |



अब ज़िक्र पे मेरे आलम ये है, चुप-चाप निकल वो जाते हैं,

मैं केवल आँख मिलाता हूँ, वो उसमे भी कतरातें हैं ,

वाकिफ हैं वो इससे की वो, अब एक टूटा हुआ परिंदा हैं,

कुल कायनात को मालूम है, वो मन ही मन शर्मिंदा हैं ,

चाहते हैं, पर अपने मुह से मेरा नाम नहीं लेते,

ये फल है उनकी गलती का उनका पश्च्याताप कहें |

 शायद आकाश छुआ मैंने, सबके अंतर्मन भांप गए,

जो कहते थे खुद को ज्ञानी, सब सिहर उठे सब काँप गए |



जितना वो कर पाए जैसे, बस मेरा अपमान किया,

व्यर्थ ही था उद्देश्य ये उनका, अंत में सबने मान लिया ,

लेकिन मजबूर हैं आदत से वो, शायद किस्मत के मारे हैं,

और ज़ारी है गर कोशिश अब भी, तो भोले नहीं बेचारे हैं ,

मैं यही कहूँगा उनसे की, हैं बहुत सी चीज़े करने को,

मुझसे टकराकर पहले ही, ढह कितने सैलाब गए |

 शायद आकाश छुआ मैंने, सबके अंतर्मन भांप गए,

जो कहते थे खुद को ज्ञानी, सब सिहर उठे सब काँप गए |


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